बॉलीवुड फिल्म रिव्यु लिपस्टिक अंडर माय बुरखा दीपक दुआ।

रिव्यू-खोखले हैं ये लिपस्टिक वाले सपने

-दीपक दुआ…


पुराने भोपाल के एक मौहल्ले की चार औरतें। बुर्के बेचने वाले मुस्लिम परिवार की कॉलेज जाने वाली रिहाना (प्लविता बोरठाकुर)। घर के बंद माहौल से परे ऊंचा उड़ने के लिए ‘जींस का हक, जीने का हक’ उसका नारा है। अपनी मर्जी के खिलाफ शादी करने को तैयार लीला (आहाना कुमरा) अपने आशिक फोटोग्राफर के साथ मिल कर कोई बड़ा काम करना चाहती है। अपने पति से दबने वाली तीन बच्चों की मां शाहीन (कोंकणा सेन शर्मा) पति से छुप कर नौकरी करती है। मौहल्ले की उषा बुआ जी (रत्ना पाठक शाह) सबसे छुप कर स्विमिंग सीखती है, अपने युवा स्विमिंग कोच में अपने प्रेमी को तलाशती है और उससे फोन पर सैक्सी-बातें करती है।

‘टर्निंग 30’ बना चुकीं अलंकृता श्रीवास्तव की पिछली फिल्म की तरह यह फिल्म ‘लिपस्टिक
अंडर माई बुर्का’ भी नारीमुक्ति का झंडा बुलंद करती है। इन चार औरतों की निजी दुनिया में झांकने के बरअक्स यह फिल्म काफी कुछ ऐसा कह जाती है जिस पर बात करने से फिल्मकार ही नहीं, यह समाज और खुद औरतें तक भी बचती हैं। एक संवाद इसमें है-‘हमारी गलती यह है कि हम सपने देखती हैं।’ दरअसल यह फिल्म इन औरतों के इन लिपस्टिक वाले रंगीन सपनों के बहाने से दुनिया की तमाम औरतों की उन अधूरी, दबी हुई इच्छाओं को दिखाती चलती है जिन्हें कभी घर-परिवार की इज्जत तो कभी ‘लोग क्या कहेंगे’ की आड़ लेकर पूरा नहीं होने दिया गया।

लेकिन अपने जमीनी और वास्तविक लगते कलेवर से लुभाने वाली यह फिल्म अपने फ्लेवर से प्रभावित नहीं कर पाती। इन औरतों के बागी तेवर सिर्फ बाहर वालों के प्रति हैं जबकि इन्हें असल प्रताड़ना घर से मिल रही है। आजादी इन्हें दरअसल अपने घर में चाहिए लेकिन ये इसे तलाश बाहर जाकर रही हैं। क्लाइमैक्स में बिना कोई दमदार बात किए फिल्म का अचानक खत्म हो जाना इसके असल मकसद को ही बेकार कर देता है और सवाल उठता है कि क्या फ्री-सैक्स, शराब-सिगरेट, फटी जींस और अंग्रेजी म्यूजिक अपनाने भर से औरतें आजाद हो जाएंगी? आजादी के ये प्रतीक क्या इसलिए कि यही सब पुरुष करता है? अगर ऐसा है तो फिर औरत यहां भी तो मर्द की पिछलग्गू ही हुईं? फिल्मकारों को नारीमुक्ति की इस उथली और खोखली बहस से उठने की जरूरत है।

चारों अभिनेत्रियां अपने-अपने किरदारों में उम्दा अभिनय करती दिखाई दी हैं। कोंकणा सिर्फ चेहरे के भावों से कुछ भी कह सकने में सिद्धहस्त हैं। सुशांत सिंह जैसे समर्थ अभिनेता को फिल्म व्यर्थ कर देती है। सेंसर में फंसने और ढेरों फिल्मोत्सवों में जाने के बाद चर्चित हुई यह फिल्म ‘हट कर’ वाले मिजाज का सिनेमा देखने वालों के लिए है लेकिन इससे कोई बहुत सार्थक उम्मीद रखना बेमानी होगा।

अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपने ‘सिनेयात्राब्लॉग’ के अलावा समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

 

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