भोजपुरी फिल्मों का सफरनामा लेखक रविराज पटेल की कलम से पाठकों के लिए खास।
-दीपक दुआ।
भोजपुरी फ़िल्म यानी कि फूहड़ सिनेमा,द्विअर्थी संवादी वाला सिनेमा,मसालेदार सिनेमा,परिवार के साथ बैठकर न देखा जाने वाला सिनेमा।पिछले कुछ समय से भले ही भोजपुरी फिल्मों की यह छवि बनी हो।लेकिन,सच यह हैं कि कोई वक़्त था।जब भोजपुरी सिनेमा बेहद समृद्ध और संपन्न था।बहुत कम लोग यह बात जानते होंगे कि भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत का श्रेय भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद के उस आहवान को जाता हैं।जो उन्होंने मुम्बई फ़िल्म उद्योग के सामने किया था।जिससे प्रेरित होकर हिन्दी फ़िल्म के प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता नजीर हुसैन ने पहली भोजपुरी फ़िल्म गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो बनाने जैसा भागीरथ काम को अंजाम दिया था।बीते कुछ दशकों से भोजपुरी सिनेमा में किस किस्म के बदलाव आये।किन संकर पथरीले और अंधेरों रास्तो से होकर यह सिनेमा गुज़रा।किस तरह से इसकी तरक्की हुई और फिर कैसे पतन की राह पर चल पड़ा।कैसे बाजार ने इस सिनेमा में अपनी घुसपैठ की और भोजपुरी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल न करने से इस पर कैसे असर पड़ा?ऐसे ढ़ेरों विषयों को अपने मे समेटे भोजपुरी फिल्मों का सफरनामा नाम की यह किताब न सिर्फ पाठकों की जिज्ञासा को शांत करती हैं।बल्कि,यह उम्मीद भी जगाती हैं कि यदि भोजपुरी सिनेमा से जुड़े लोग जरा सा संभल जाये।तो एक बार फिर से इस सिनेमा के अच्छे दिन आ सकते हैं।दिल्ली के प्रभात प्रकाशन से आई इस किताब में लेखक रविराज पटेल का इसे लिखने के लिए किया गया शौध और संघर्ष साफ झलकता हैं।इसी वजह से भोजपुरी सिनेमा के अब तक सफर व मौजूदा दशा पर यह एक उल्लेखनीय दस्तावेज बन कर सामने आती हैं।
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