लुभाएगी जग्गा की जासूसी फ़िल्म रिव्यु दीपक दुआ।

-दीपक दुआ

मुमकिन है यह सवाल आपके मन में भी कभी उठता हो कि कश्मीर हो, उत्तर-पूर्व या मध्य भारत का नक्सली इलाका, वहां के अलगाववादियों से लेकर दुनिया की वे तमाम जगहें, जहां हथियारबंद आतंकी मौजूद हैं, आखिर ये हथियार कोई तो पहुंचाता ही होगा। यह फिल्म ऐसे ही एक गैंग का पर्दाफाश करती है।

नई पीढ़ी को शायद यह पता भी न हो कि 1995 में लातविया का एक हवाई जहाज चुपके से भारत में घुस कर पश्चिम बंगाल के पुरुलिया में ढेरों घातक हथियार गिरा कर चला गया था। दरअसल वे हथियार कहीं और पहुंचने थे मगर गलती से यहां गिरा दिए गए। इस फिल्म में यहां से शुरू हुई एक इंसान की खोजबीन उसके खुद के गायब हो जाने तक चलती है और फिर उसी इंसान का बेटा जग्गा उसे ढूंढने निकलता है।

देखा जाए तो कायदे से इस कहानी पर एक हार्ड-हिटिंग थ्रिलर या एक्शन फिल्म बननी चाहिए। लेकिन फिर हम ही लोग रोना रोते हैं कि ये ‘बाॅलीवुड’ वाले कुछ नया क्यों नहीं लाते, जरा नएपन से अपनी बात क्यों नहीं कहते, वगैरह-वगैरह। तो जनाब, इस फिल्म में वह सारा नयापन है। कहानी के सिरे ही देखिए न, कहां से कहां को जोड़ते हैं। फिर अनुराग बसु उसे जिस कल्पनाशीलता के साथ परोसते हैं वह अद्भुत है। फख्र होना चाहिए कि हमारे समय में एक ऐसा निर्देशक हिन्दी सिनेमा में मौजूद है जो घिस चुकी लीक से इस तरह हटने का दम रखता है।

जग्गा बोलते हुए हकलाता है लेकिन गाता है तो बेबाक हो जाता है। मुमकिन है गाकर अपनी बात कहने का उसका स्टाइल कुछ लोगों को म्यूजिकल प्ले जैसा लगे। फिर अनुराग जिस तरह से किसी काॅमिक-बुक की तरह से अपनी कहानी की परतें खोलते हैं, काफी संभव है कि फिल्म का शुरूआती हिस्सा ढर्रे वाली फिल्में देखने के आदी दर्शकों को अखरे या उनके सिर के ऊपर से निकल जाए। लेकिन एक बार अगर आपने इसे जज्ब कर लिया तो फिर यह फिल्म आपको एक ऐसे एडवैंचर भरे काॅमिक सफर पर ले चलती है जिसमें न सिर्फ भरपूर मनोरंजन मिलता है बल्कि यह संदेश भी कि हथियार बनाने वालों का एक ही मकसद है-फूट डालो, हथियार बेचो और हथियार बेचो, फूट डालो। और हां, एक गाने में यह मैसेज भी साफ है कि पड़ोस (पड़ोसी मुल्क) में आग लगी हो और हमारे घर के बाहर तो नींबू-मिर्ची टंगा है, हम तो सुरक्षित हैं, सोचने वाले भी इस आग से बच नहीं पाएंगे। हथियार की जगह अगर केक (रोटी, हक) मिलने लगे तो यह आग खुद बुझ जाए।

 

कैटरीना का बच्चों के एक पंडाल में जग्गा की कहानी कहने का वाला हिस्सा छोटा होता तो फिल्म में और कसावट आ जाती। लोकेशन बेहद खूबसूरत हैं और कैमरे व ग्राफिक्स की मदद से इन्हें जिस तरह से फिल्माया गया है, वह आंखों को बेहद सुकून देता है। गाने, गानों में बातें और उन पर प्रीतम का संगीत जंचता है।

जग्गा का किरदार काॅमिक्स से निकले टिनटिन से प्रेरित है। अनुराग ऐसे कई रेफरेंस देते हैं जो बताते हैं कि वे कितनी ही किताबों, काॅमिक्स और फिल्मों से होकर गुजरे होंगे इस फिल्म को तैयार करने से पहले। खासतौर से सत्यजित रे की बनाई ‘गूपी गायन बाघा बायन’ और उन्हीं का रचा फेलूदा का किरदार तो साफ महसूस किया जा सकता है।

 

रणबीर कपूर का काम बताता है कि वह आज के अभिनेताओं से कैसे बेहतर हैं। अगर गौर करें तो कैटरीना कभी अपने काम में कमी नहीं आने देती हैं। किरदार उनके ऊपर जंचे तो वह उसे हमेशा उठाए रखती है। जग्गा के पिता के रोल में शाश्वत चटर्जी जम कर लुभाते हैं। सौरभ शुक्ला को इस बार जरा कम दमदार रोल मिला।

 

अपने नए और अनोखेपन के लिए इस फिल्म को देखा जाना चाहिए। इसलिए भी कि पूरे परिवार के साथ बैठ कर देखी जाने वाली एकदम साफ-सुथरी फिल्में अब कम बनती हैं। और हां, फिल्म एकदम आखिरी सीन तक देखिएगा। कभी सुना है दो सिर वाला विलेन? और वह भी नवाजुद्दीन सिद्दिकी? अंत में इस फिल्म के सीक्वेल की संभावना भी रखी गई है। उम्मीद की जानी चाहिए, अनुराग और रणबीर की जोड़ी इस बार ज्यादा देर नहीं लगाएगी।

अपनी रेटिंग- **** स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपने ‘सिनेयात्राब्लॉग’ के अलावा समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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